महाभारत युद्ध के रहस्य | Mahabharat Ke Rahasya In Hindi

Mahabharat Ke Rahasya (secrets) In Hindi महाभारत हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों और पुराणों में से एक हैं. यदि महाभारत निहित विषय – वस्तु [Content] की बात करें, तो यह ईसाई धर्म ग्रंथ ‘बाइबिल’ से तीन गुना बड़ा हैं. इसमें 1 लाख से भी ज्यादा श्लोक [Verses] हैं. इन श्लोकों में कौरवों और पांडवों के बीच घटित हुई घटनाओं के साथ – साथ भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का भी वर्णन हैं. इसके अलावा इसमें नीति पूर्ण कर्तव्यों और कार्यों का वर्णन भी हैं. महाभारत के अंतर्गत भक्तिपूर्ण और दार्शनिक [Devotional & Phylosophical] बातों का भी संपूर्ण समन्वय देखने को मिलता हैं. यदि हम सीखना चाहे तो हमारे जीवन के कई महत्वपूर्ण अध्याय हम इस महाभारत नामक धर्म ग्रंथ से सीख सकते हैं. यह पुराण हमें धर्म, कर्म और ईश्वर का साक्षात्कार कराता हैं.

इस धर्म ग्रंथ के बारे में और इसमें निहित परिणाम के बारे में तो हम सभी जानते हैं, परन्तु ऐसी कई बातें हैं, जो रहस्यमयी हैं. हम ऐसा भी कह सकते हैं कि अगर ये रहस्यपूर्ण बातें घटित न हुई होती तो शायद महाभारत युद्ध का परिणाम आज कुछ और ही होता. आज कुछ ऐसी ही बातें हम आपके साथ साझा करेंगे, जो आपकी जानकारी महाभारत के प्रति बढ़ाएगी, साथ ही साथ इस महाभारत युद्ध के पात्रों का व्यक्तित्व और भी अधिक उजागर करेगी और शायद इनके प्रति आपका दृष्टिकोण भी बदल देगी.

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महाभारत युद्ध के रहस्य

Mahabharat Ke Rahasya In Hindi

महाभारत के महत्वपूर्ण रहस्यों में से कुछ रहस्य निम्नानुसार हैं -:

  • पांच स्वर्ण तीर [Five Golden Arrows] -:

महाभारत युद्ध लड़ा जा रहा था, कौरवों के पास, पांडवों की तुलना में सैन्य बल और सुविधाएँ अधिक थी, साथ ही साथ एक से बढ़ कर एक महारथी भी थे, परन्तु फिर भी युद्ध में पांडव विजय की ओर बढ़ रहे थे और कौरव सेना का नाश करते जा रहे थे. इन परिस्थितियों को देखकर जब दुर्योधन बहुत अधिक विचलित हो जाता हैं, तो अपनी सेना को मार्गदर्शन देने वाले अपने पितामह भीष्म के पास जाता हैं और उन पर ये दोषारोपण करता हैं कि वे पांडवों से अधिक प्रेम करते हैं और इसी कारण पांडवों के विरुद्ध लड़े जा रहे. इस महाभारत के युद्ध का ठीक प्रकार से संचालन नहीं कर रहे, जिससे कौरव सेना को हार का सामना करना पड़ रहा हैं. दुर्योधन की इस प्रकार की बातों और मिथ्या आरोपों को सुनकर पितामह भीष्म क्रोधित हो जाते हैं और वे अपने तुणीर [जिसमें बाणों को रखा जाता हैं] में से पांच स्वर्ण तीर निकालकर कुछ मंत्रों का उच्चारण करके उन्हें अभिमंत्रित कर देते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि कल वे इन्हीं 5 तीरों से पाँचों पांडवों का वध कर देंगे. इस बात से दुर्योधन कुछ आश्वस्त तो होता हैं, परन्तु पितामह भीष्म पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पाता और उनसे कहता हैं कि आप ये 5 स्वर्ण तीर मुझे दे दीजिये, आज संपूर्ण रात्रि ये मेरी सुरक्षा में रहेंगे और कल प्रातःकाल जब आप युद्ध के लिए प्रस्थान करेंगे तो उस समय मैं ये 5 तीर आपको पांडवों का वध करने के लिए दे दूंगा.

शिक्षा –: ये घटना पितामह भीष्म की कर्तव्य निष्ठा का बोध कराती हैं और हमें यह सीख देती हैं कि हमें अपने प्रेम और मोह, आदि की भावना से ऊपर उठकर सर्वप्रथम अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए.

  • दुर्योधन द्वारा अर्जुन को वरदान देना [Duryodhana told Arjuna to ask for a Boon] -:

महाभारत युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व सभी पांडव वन में निवास कर रहे थे. पांडवों के निवास स्थान पर एक सरोवर [Pond] था, इसके सामने ही दुर्योधन भी अपने निवास के लिए शिविर [Camp] लगाता हैं. जब दुर्योधन सरोवर से स्नान करके निवृत होता हैं, तो वहाँ अचानक ही स्वर्ग से गंधर्व प्रकट हो जाते हैं और किसी कारणवश उन गंधर्व राजकुमार और दुर्योधन के बीच युद्ध होता हैं और दुर्योधन इस युद्ध में परास्त हो जाता हैं. गंधर्व राजकुमार द्वारा दुर्योधन को बंदी बना लिया जाता हैं. तब पांडु पुत्र अर्जुन गंधर्व राजकुमार से युद्ध करता हैं और उन्हें परास्त करके दुर्योधन को मुक्त कराता हैं. इस पर दुर्योधन बहुत लज्जित होते हैं और अर्जुन के प्रति अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त करते हैं और इसी के साथ दुर्योधन अर्जुन को वरदान माँगने को कहते हैं. इस पर अर्जुन कहते हैं कि वे समय आने पर अवश्य ही कोई वरदान माँग लेंगे.

  • अर्जुन द्वारा दुर्योधन से वरदान की माँग [Arjuna asked for his Boon] -:

यह घटना उस समय की हैं, जिस रात्रि में पितामह भीष्म ने 5 स्वर्ण तीरों को कुछ मंत्रों का उच्चारण करके अभिमंत्रित किया था और दुर्योधन ने सुरक्षा के दृष्टिकोण से उन तीरों को अपने पास रख लिया था.

भगवान श्रीकृष्ण को अपने गुप्तचरों द्वारा इस बात का पता चल जाता हैं और तब वे पांडवों की सुरक्षा के लिए अर्जुन को उस वरदान की याद दिलाते हैं, जो दुर्योधन के प्राण बचाने पर उसने माँगने के लिए कहा था और अर्जुन ने ये कहा था कि वे उचित समय आने पर अपना वरदान दुर्योधन से माँग लेंगे.

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इस बात को याद दिलाने पर अर्जुन उसी समय दुर्योधन के पास जाते हैं और अपने उस वरदान का स्मरण कराते हैं और वरदान स्वरुप उन 5 अभिमंत्रित स्वर्ण तीरों को मांगते हैं. अर्जुन की ये बात सुनकर दुर्योधन हतप्रभ रह जाते हैं, परन्तु अपने वचन के कारण और क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए वे ये अभिमन्त्रित 5 स्वर्ण तीर अर्जुन को वरदान स्वरुप दे देते हैं. इस प्रकार पांडवों के प्राणों की रक्षा होती हैं.

इस प्रकार उन तीरों को अर्जुन को देने के पश्चात् दुर्योधन पितामह भीष्म के पास जाते हैं और फिर से तीरों को अभिमंत्रित करने का आग्रह करते हैं, परन्तु पितामह भीष्म इसमें अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं और तीरों को दोबारा अभिमंत्रित नहीं कर पाते.

  • सहदेव द्वारा अपने पिता पांडु का मस्तिष्क खाना [Sahdeva ate his father’s brain] -:

ऐसा कहा जाता हैं कि जब पांडवों के पिता महाराज पांडु की मृत्यु होने वाली थी, तो उन्होंने अपने पुत्रों से उनका मस्तिष्क खाने को कहा ताकि उनके पास जो भी ज्ञान हैं, वो किसी एक पुत्र को तो प्राप्त हो. परन्तु इस बात पर सहदेव के अलावा किसी भी पांडु पुत्र का ध्यान नहीं जाता हैं और फिर पांडु पुत्र सहदेव अपने पिता पांडु का मस्तिष्क खाते हैं. जैसे ही वे मस्तिष्क का पहला निवाला [Bite] ग्रहण करते हैं, उन्हें इस बात का पता चलता हैं कि ब्रह्मांड में क्या – क्या घटनाएँ घटित हो रही हैं, दूसरे निवाले को ग्रहण करने पर वे वर्तमान का ज्ञान प्राप्त होता हैं और तीसरे निवाले के साथ वे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जान लेते हैं.

  • दुर्योधन द्वारा सहदेव से सहायता माँगना [Duryodhan approached Sahdeva for help] -:

पांडु पुत्र सहदेव, जिसने अपने पिता का मस्तिष्क खाया था, उसे न केवल भविष्य देखने की शक्ति प्राप्त थी, बल्कि ज्योतिष विज्ञान [Astrology] में भी बहुत महारत प्राप्त थी. इस कारण शकुनि, दुर्योधन को सहदेव के पास जाकर युद्ध प्रारंभ करने का शुभ मुहूर्त जानने को कहते हैं, ताकि इस युद्ध में कौरवों की विजय सुनिश्चित हो जाये. हालाँकि ये बात पांडवों के लिए अच्छी नहीं थी, फिर भी सहदेव दुर्योधन को मुहूर्त के बारे में संपूर्ण जानकारी देते हैं.

  • भगवान बलराम अभिमन्यु के ससुर थे [Balram was Abhimanyu’s Father in law] -:

अभिमन्यु की पत्नि वत्सला भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान बलराम की पुत्री थी. भगवान बलराम अपनी पुत्री का विवाह उनके शिष्य कौरव राजकुमार दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण से कराना चाहते थे. परन्तु अभिमन्यु और वत्सला एक – दूसरे से प्रेम करते थे और विवाह करना चाहते थे. इसलिए वे पांडु पुत्र भीम के पुत्र घटोत्कच की सहायता से लक्ष्मण को भयभीत कर देते हैं और परस्पर विवाह कर लेते हैं. इस प्रकार भगवान बलराम अभिमन्यु के ससुर बनते हैं. घटोत्कच के जन्म के बारे में जानने के लिए यहाँ पढ़ें.

  • अर्जुन पुत्र इरावन का बलिदान और उसकी अंतिम इच्छा [Arjun’s Son Iravan sacrificed himselfand his last wish] -:

ये प्रसंग बहुत ही अद्भुत हैं और यदि इसे अकल्पनीय भी कहा जाये, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. इस प्रसंग से हमें यह पता चलता हैं कि अगर इरादे नेक हो तो भगवान अपने भक्त के लिए असंभव को भी संभव कर देते हैं, भक्त की हर इच्छा पूरी करते हैं और उसे तृप्त कर देते हैं.

प्रसंग कुछ इस प्रकार हैं -:

महाभारत का युद्ध पांडव ही जीते, इसके लिए अर्जुन के पुत्र इरावन ने माँ काली को अपने प्राणों की बलि दी थी. परन्तु उसकी अंतिम इच्छा थी कि मृत्यु से पूर्व उसका विवाह हो जाये. तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मोहिनी रूप धारण किया और इरावन से विवाह करके उसकी अंतिम इच्छा पूर्ण की थी और जब इरावन ने अपने प्राणों की बलि दी तो उसकी मृत्यु पर भगवान श्रीकृष्ण अपने मोहिनी स्वरुप में एक विधवा की भांति रोये थे.

  • धृतराष्ट्र और दासी का पुत्र [Dhrutrashtra had a son from a Maid] -:

धृतराष्ट्र की पत्नि गांधारी को जब गर्भ धारण किये हुए 10 माह से भी अधिक हो जाते हैं, परन्तु संतान का जन्म नहीं होता तो इस बात से धृतराष्ट्र, गांधारी पर बहुत क्रोधित होता हैं कि वह उसे संतान का सुख नहीं दे पा रही हैं और तब गांधारी को पीड़ा एवं दुःख पहुँचाने के लिए गांधारी की दासी सौवली को बुलाता हैं और उससे संतान प्राप्त करता हैं और इस प्रकार धृतराष्ट्र और दासी सौवली का पुत्र ‘युयुत्सु’ का जन्म होता हैं. कैसे पैदा हुए एक सौ दो कौरव? यहाँ पढ़ें

  • महाराज उडुपी द्वारा कुरुक्षेत्र के योद्धाओं को भोजन कराना [King Udupi fed the Kurukshetra warriors] -:

महाभारत युद्ध जब लड़ा जाने वाला था, तो सभी धर्म और अधर्म की बातें करने में व्यस्त थे. चारों ओर नैतिक और अनैतिक की बहस छिड़ी हुई थी. सभी की बातों और विचारों से तो प्रजा की भलाई की बात सामने आती थी. परन्तु कोई भी इस हेतु कार्यरत नहीं था. बस यही कहा जा रहा था कि धर्म की अधर्म पर विजय होगी तो मानवता अपने – आप ही अस्तित्व में आ जाएगी. परन्तु ऐसे समय में भी एक मनुष्य ऐसा था, जो न धर्म की ओर से लड़ा और न ही अधर्म की ओर से, उस व्यक्ति ने केवल अपना मानव धर्म निभाया और इस युद्ध के दौरान मानवता पूर्ण कार्यभार संभाला, वे व्यक्ति थे -: महाराज उडुपी.

प्रसंग कुछ इस प्रकार हैं -:

जब महाभारत युद्ध लड़ा जाने वाला था, तो सभी राजाओं ने युद्ध में भाग लिया. कुछ राजा पांडवों की ओर से युद्ध कर रहे थे, तो कुछ राजा कौरवों के सहयोगी बने. परन्तु राजा उडुपी ने युद्ध में भाग नहीं लिया. तब वे भगवान श्रीकृष्ण से मिले और कहा कि “जो भी योद्धा इस युद्ध में लड़ेंगे, उन्हें भोजन, आदि की आवश्यकता तो पड़ेगी ही, तो मैं उन योद्धाओं को भोजन कराऊंगा”. भगवान उनकी इस इच्छा पर सहमत हो गये.”

महाभारत का युद्ध 18 दिन तक चला और प्रतिदिन ही हजारों लाखों योद्धा, सैनिक मारे जाते थे. जैसे – जैसे सैनिक कम होते जाते थे, महाराज उडुपी भी कम भोजन बनाते थे, ताकि भोजन का नुकसान न हो.

  • जीवन के अंतिम क्षणों में भी कर्ण की दानवीरता और महानता के दर्शन [Karna showed his greatness even in his last moments] -:

महाभारत युद्ध में जब अर्जुन कर्ण का वध कर देते हैं, तो कर्ण भूमि पर गिर जाते हैं और अपनी अंतिम सांसे लेते हैं. तब भगवान श्रीकृष्ण महारथी कर्ण की अंतिम परीक्षा लेने का निश्चय करते हैं और ब्राह्मण का वेश धारण करके महारथी कर्ण के समक्ष जाते हैं और उनसे स्वर्ण का दान मांगते हैं. तब कर्ण उस ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण से अपना मुँह खोलकर दिखाते हुए कहते हैं कि हे ब्राह्मण देवता, आप मेरे इन सोने के दांतों को तोड़कर स्वर्ण प्राप्त कीजिये. तब ब्राह्मण देवता कहते हैं कि यह तो बहुत ही दुष्टतापूर्ण और पाप का कार्य हैं, मैं ऐसा नहीं कर सकता. तब महारथी कर्ण युद्ध भूमि में पड़े एक पत्थर से अपने दांत तोड़कर उन्हें देते हैं. इस पर भी ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण पुनः उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहते हैं कि ये दांत तो रक्त से भरे हुए हैं, अशुद्ध हैं, वे इसे ग्रहण नहीं कर सकते. तब बुरी तरह घायल कर्ण, जो बड़ी ही मुश्किल से हिल पा रहे थे, अपना धनुष बाण उठाते हैं और आसमान की ओर निशाना साधते हैं और बाण चलाते हैं और वर्षा होने लगती हैं, तब इस वर्षा के पानी से वे अपने दांतों को धोकर, पूरी तरह से शुद्ध करके ब्राह्मण देवता को अपने स्वर्ण दांतों का दान करते हैं. कर्ण के जीवन से जुड़ी अन्य रोचक बातें यहाँ पढ़ें.

इस तरह महारथी कर्ण अपने अंतिम समय में भी अपने दानवीरता के गुण को नहीं छोड़ते और यथा संभव पालन करते हैं. महाभारत के पात्रों का पूर्व जन्म रहस्य जानने के लिए यहाँ पढ़ें.

Ankita
अंकिता दीपावली की डिजाईन, डेवलपमेंट और आर्टिकल के सर्च इंजन की विशेषग्य है| ये इस साईट की एडमिन है| इनको वेबसाइट ऑप्टिमाइज़ और कभी कभी आर्टिकल लिखना पसंद है|

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